नेहा की चूक: कला और एजेंडे का अंतर भूल जाना
लोकगीत से लेकर लज्जा तक का सफर: कहाँ चूक गईं नेहा?
कभी लोकगीतों से बिहार और पूर्वांचल के गाँव-गाँव में पहचान बनाने वाली नेहा सिंह राठौर आज एक ऐसे मोड़ पर आ चुकी हैं जहाँ उनके गीतों से ज़्यादा उनके विवादों की चर्चा हो रही है। सवाल उठता है: आखिर किस मोड़ पर नेहा का ये सफर लोकगाथाओं से फिसल कर 'लज्जा' की कहानियों तक पहुँच गया?
नेहा का आरंभिक दौर: जब सुरों में था संघर्ष का संगीत
नेहा ने अपने गीतों के जरिये आम जनता की आवाज को उठाया था। उनके शब्दों में दर्द था, संघर्ष था और व्यवस्था से सवाल पूछने की ताकत थी। 'बिहार में का बा?' जैसा लोकगीत लोगों की जुबान पर चढ़ गया। यही उनकी पहचान भी बनी।
लेकिन फिर, बदलाव आया...
समय के साथ, विरोध के नाम पर नेहा का रुख कुछ ऐसा हो गया जिसमें आलोचना से ज़्यादा एकतरफा राजनीति की झलक मिलने लगी। गीतों में संवेदना कम और सनसनी ज़्यादा दिखने लगी। जनता के मुद्दों की बजाय व्यक्तिगत एजेंडा हावी होने लगा।
पाकिस्तान में वायरल होना — संयोग या प्रयोग?
जब किसी भारतीय कलाकार के गीत पाकिस्तान में जश्न के साथ वायरल हों, तो सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या ये महज संयोग था? या फिर शब्दों की आड़ में देश के खिलाफ घाव दिया जा रहा था? भारत के आम आदमी का दिल इन घटनाओं से आहत है।
"जिस कला से समाज को जोड़ना था, वही कला जब समाज को तोड़ने लगे तो कलाकार को आत्ममंथन करना चाहिए।"
नेहा की चूक: कला और एजेंडे का अंतर भूल जाना
नेहा शायद भूल गईं कि कलाकार का सबसे बड़ा धर्म होता है समाज को जगाना, न कि बाँटना। जब सवाल पूछना सिर्फ एक विचारधारा तक सीमित हो जाए, तो जनता से दूरी बढ़ने लगती है। वही आज नेहा के साथ हो रहा है।
देशवासियों की प्रतिक्रिया
भारत के गांव, कस्बों और शहरों में आम लोगों ने नेहा के हालिया रुख से नाराज़गी जताई है। जहाँ एक समय नेहा को सर आँखों पर बिठाया गया था, आज वही जनता उनके नए बयानों और गानों पर सवाल उठा रही है।
आखिर में...
लोकगीतों की सादगी से चलकर विवादों की गहराइयों में नेहा कहाँ खो गईं, इसका जवाब शायद उन्हें खुद भी नहीं मिला होगा।
"सच जब गीत बनकर बहे, तो क्रांति आती है। लेकिन जब एजेंडा बनकर गाये जाएं, तो कला भी शर्मसार हो जाती है।"
कुछ बहते हुए जज़्बात...
उछाली थी जो याद की जनता की नागमें गूंजती थी,
आज की वाणी पाक की काहानी बन गई है।
जो कला जनक को जोोड़ना चाहिए,
वही अब खुद की की अनदूनी बन गई है।
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— अभिजीत गुरु | संपादक, NewBharat1824.in
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