धर्म के नाम पर बना मुल्क, इंसानियत का कातिल — जनत नहीं, ज़लालत है ये!
धर्म के नाम पर देश और इंसानियत की कुर्बानी – एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण
धर्म और इंसानियत, दोनों ऐसी अवधारणाएँ हैं जिनका अस्तित्व मानवता में गहरे जुड़े हुए हैं। लेकिन जब ये दो शक्तियाँ एक दूसरे के विरोध में खड़ी होती हैं, तो परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं, यह इतिहास से जाना जा सकता है।
धर्म के नाम पर देश का निर्माण
हमने देखा है कि जब धर्म को राष्ट्रीय पहचान और सत्ता के एक मुख्य आधार के रूप में अपनाया जाता है, तो न केवल देश की संप्रभुता को खतरा होता है, बल्कि समाज में भी एक गहरी विभाजन की खाई पैदा हो जाती है। धर्म के नाम पर राष्ट्र निर्माण ने हमेशा इंसानियत को पीछे छोड़ दिया।
इंसानियत की कुर्बानी
इतिहास में कई उदाहरण हैं जहाँ धर्म के नाम पर किए गए फैसलों ने लाखों लोगों की जान ली। इंसानियत को दूसरे धर्म, जाति और समुदाय के नाम पर मारना कोई नई बात नहीं है, लेकिन क्या इस सबका अंत ‘जनत’ (स्वर्ग) होगा? क्या इसका परिणाम सद्भाव और प्रेम होगा?
क्या धर्म की राजनीति देश को समृद्ध बना सकती है?
धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं ने कभी नहीं सोचा कि यह देश को एकजुट करने के बजाय उसे कमजोर कर देगा। इस प्रकार की राजनीति ने समाज में डर और नफरत फैलाने का काम किया है। ऐसे में क्या हम यह मान सकते हैं कि धर्म के नाम पर राजनीति देश की समृद्धि का रास्ता खोलेगी?
एकता के बजाय विघटन
धर्म और राजनीति के गठजोड़ ने समाज में एकता की बजाय विघटन की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है। धार्मिक भेदभाव के कारण समाज के विभिन्न वर्गों में घृणा और असहिष्णुता का वातावरण बन गया है, जिससे देश की एकता कमजोर हो गई है।
- क्या धर्म की राजनीति समाज को असहिष्णु बना रही है?
- क्या इस तरह की राजनीति से सामाजिक समानता को नुकसान हो रहा है?
निष्कर्ष
इस लेख में हम देख चुके हैं कि धर्म के नाम पर बनी राजनीति ने न केवल राष्ट्र के विकास को बाधित किया, बल्कि समाज में इंसानियत को कुर्बान कर दिया है। इसके परिणामस्वरूप, हमें यह समझना चाहिए कि धर्म को राजनीति से अलग करना केवल एक राष्ट्र की पहचान के लिए ही नहीं, बल्कि इंसानियत के लिए भी जरूरी है।
जो कला जनक को जोड़ना चाहिए,
वही अब खुद की अनदूनी बन गई है।
- हर खबर को सतर्कता से पढ़ें
- प्रचार और सच्चाई में फर्क समझें
- अपने वोट का सही उपयोग करें
- झूठ और नफरत फैलाने वालों को पहचानें
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— अभिजीत गुरु | संपादक, NewBharat1824.in
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